दूसरों के धन परदूसरों के तन परनील गगन परनजर न करओ लोभी नर!अपने धन परअपने मन परअपने तन परअपने वतन परमगन रह करकर्तव्य अपना करनिरंतर,ओ नारी नर!- सहज- हम उम्मीद करते हैं कि यह पाठक की स्वरचित रचना है। अपनी रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।
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